♠ दूसरों के सुख में ही हमारा सुख I ♠

दो मित्र थे एक सुनार दूसरा माली। एक दिन माली ने सुनार से कहा। क्यो अपनी दुकान पर बैठकर ठुक-ठुक करते रहते हो? एक दिन बगीचे में आओ। विभिन्न प्रकार के सुंदर और सुगंधित फूलों से साक्षात्कार करोगे तो तुम्हारा मन भी खिल उठेगा।

उसकी बात सुनकर सुनार बोला- दोस्त मै अवश्य आऊंगा। मगर शर्त यह है कि तुम्हें भी मेरी दुकान पर आकर मेरे द्वारा निर्मित आभूषणों को देखना होगा। मेरे विचार से अपने मित्र की कलाकारी देखकर तुम्हें भी खुशी मिलेगी। दोनों ने परस्पर न्यौता स्वीकार कर लिया। एक दिन सुनार माली, माली के बगीचे में पहुंचा। सोने का पारखी सुनार एक एक फूल को देखता और मुंह बिचकाकर दूसरे पौधे की तरफ रूख कर लेता। इस तरह सुनार को बगीचे में तनिक भी आनंद नहीं आया। अगले दिन माली सुनार की दुकान पर गया। सुनार ने उसके समझ अपने द्वारा बनाए हुए विभिन्न शैलियों के सुंदर आभूषण रखे। माली प्रत्येक आभूषण को उठा- उठाकर सूंघता और निराश होकर रख देता।

उसे भी उतनी ही निराशा हाथ लगी, जितनी कि सुनार को लगी थी।

वस्तुत: हम सभी सुनार और माली ही तो हैं। जीवन में सुख- संतोष खोजने की हमारी अपनी अपनी कसौटियां है। कठिनाई यह है कि हम फूलों को सोने की कसौटी पर कसते है और सोने में सुगंध खोजते है। परिणाम में निराशा हाथ आती है। बेहतर होगा कि सुख- संतोष के सीमित दायरे तोड़कर इनका विस्तार किया जाए। दूसरों के सुख में सुखी होकर देखिए, कैसे आत्मिक सुख आपके पास दौड़ा चला आएगा।