♠ सच्चा आत्म-समर्पण ♠

थाईजेन्ड ग्रीनलैण्ड पार्क में स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी भाषण हुआ। उन्होंने संसार के नव-निर्माण की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा- ‘‘यदि मुझे सच्चा आत्म-समर्पण करने वाले बीस लोक-सेवक मिल जायें, तो दुनिया का नक्शा ही बदल दूँ।”

भाषण बहुत पसन्द किया गया और उसकी सराहना भी की गई, पर सच्चे आत्म-समर्पण वाली माँग पूरा करने के लिए एक भी तैयार न हुआ।

दूसरे दिन प्रातःकाल स्वामीजी सोकर उठे तो उन्हें दरवाजे से सटी खड़ी एक महिला दिखाई दी। वह हाथ जोड़े खड़ी थी।

स्वामीजी ने उससे इतने सवेरे इस प्रकार आने का प्रयोजन पूछा, तो उसने रूंधे कंठ और भरी आँखों से कहा- भगवन्! कल आपने दुनिया का नक्शा बदलने के लिए सच्चे मन से आत्म-समर्पण करने वाले बीस साथियों की माँग की थी। उन्नीस कहाँ से आयेंगे यह मैं नहीं जानती, पर एक मैं आपके सामने हूँ। इस समर्पित मन और मस्तिष्क का आप चाहे जो उपयोग करें।

स्वामी विवेकानन्द गद्-गद् हो गये। इस भद्र महिला को लेकर वे भारत आये। उसने हिन्दू साध्वी के रूप में नव-निर्माण के लिए जो अनुपम कार्य किया उसे कौन नहीं जानता। वह महिला थी भगिनी निवेदिता- पूर्व नाम था मिस नोबल।

♠ આભડછેટનું ભૂત ♠

મહાત્મા ગાંધીબાપુના સમયની વાત છે. ગાંધીબાપુએ અશ્પૃશ્યતા નિવારણ માટેની ઝુંબેશ ઉપાડી હતી અને એની ઝુંબેશને એમના ચુસ્ત અનુયાયીઓનો ટેકો હતો.

આવાજ એક કેળવણી નિરીક્ષક સ્કૂલના ઈન્સ્પેકશન માટે કોઈ ગામડામાં ગયા. કેળવણી નીરિક્ષક ઈન્સ્પેકશન માટે ગામમાં પહોંચે તે પહેલાં તો તે પ્રખર અશ્પૃશ્યતા નિવારણ ઝુંબેશના હિમાયતી છે, કડક સ્વભાવના છે, શિસ્તના આગ્રહી છે તેવી તેમની ખ્યાતિ પહોંચી ગયેલી.

એટલે ગામની શાળાના હેડમાસ્તરે દરેક વર્ગ શિક્ષકને કહી રાખેલું કે, ''જુઓ ! કેળવણી નીરિક્ષક ઈન્સપેક્ટર ઇન્સ્પેકશન માટે આવે છે એટલે તમે સ્વચ્છતાની સાથોસાથ આભડછેટના ભૂતથી આઘા ભાગજો, નિરીક્ષકને એમ ના લાગવું જોઈએ કે આપણે આભડછેટમાં માનીએ છે. વિદ્યાર્થીઓને પણ એ જ રીતે બેસાડજો.''

આથી દરેક શિક્ષિકે પોતપોતાના કલાસમાં દરેક જાતિના વિદ્યાર્થીઓને પણ સાથે જ બેસાર્યા - સર્વણો-દલિતો-મુસ્લિમોને એક સાથે બેસાર્યા- એક બ્રાહ્મણ વિદ્યાર્થી હોય તો તેની બાજુમાં હરિજન દલિત હોય - બાજુમાં મુસ્લિમ હોય- તો તેની બાજુમાં દેવીપૂજક હોય- દેવીપૂજકની બાજુમાં ક્ષત્રિય હોય. વળી પાણી પીવાનું પાત્ર અને પવાલું પણ એક જ રાખ્યું હતું.

નીરિક્ષક આવ્યા - દરેક કલાસરૃમમાં જઈ નિરીક્ષણ કર્યું - પણ દરેક કલાસમાં એક જ જાતની બેઠક વ્યવસ્થા જોઈ વ્હેમાણાં, એટલે એમણે શિક્ષકોએ આ વ્યવસ્થા આજના ઈન્સ્પેકશનના દિવસ પૂરતી રાખી છે કે કાયમની છે એ જાણવા તેમણે યુક્તિ કરી. દરેક શિક્ષકના ચહેરા પર રાહતના ભાવ હતા, અચાનક કેળવણી નીરિક્ષક એક કલાસમાં પાછા આવ્યા અને કહ્યું : 'બાળકો, ઈન્સેપકશન પતી ગયું,

હવે તમે બધા ગઈકાલે બેઠા હતા તેમ બેસી જાવ ! આટલું સાંભળતાં જ દલિત વિદ્યાર્થીઓ ઉભા થઈ એક ખૂણામાં અલગ બેસી ગયા - એમને એ રીતે બેસી જતા જોઈ સવર્ણ વિદ્યાર્થીઓના ચહેરા ઉપર રાહતના ભાવ આવી ગયા.'

કેળવણી નિરીક્ષક આચાર્ય અને શિક્ષકના ખભે હાથ મુકી બોલ્યા: ''અશ્પૃશ્યતા ફક્ત વાણી વર્તનમાંથી જ નહિ - પણ દિલમાંથી પણ કાઢવાની કોશિશ કરો - તમે તો આ ભાવિ સમાજના ઘડવૈયા છો. તમારું જે કાંઈ આંદોલન કે કાર્ય હોય એ કુરિવાજને જડમૂળથી ઉખાડવાનું હોવું જોઈએ અને એટલે જ મહાત્મા ગાંધીબાપુએ પણ તેમના સાબરમતી આશ્રમને હરિજન આશ્રમ નામ આપ્યું છે.

હું આવ્યો માટે જ તમે આ વ્યવસ્થા કરી એ મને ન ગમ્યું. આ કુરિવાજને વિદ્યાર્થીઓના દિમાગમાંથી જડમૂળથી કાઢવાનો પ્રયત્ન કરો !''

એ કેળવણી નીરિક્ષક હતા બદરૃદ્દીન તૈયબજી.


♠ जीवन लक्ष्य ♠

अंत तक पढना दोस्तो. जीवन का सही लक्ष्य समझाती एक अनमोल कहानी....

एक नौजवान को सड़क पर चलते समय एक रुपए का सिक्का गिरा हुआ मिला। चूंकि उसे पता नहीं था कि वो सिक्का किसका है, इसलिए उसने उसे रख लिया। सिक्का मिलने से लड़का इतना खुश हुआ कि जब भी वो सड़क पर चलता, नीचे देखता जाता कि शायद कोई सिक्का पड़ा हुआ मिल जाए।

उसकी आयु धीरे-धीरे बढ़ती चली गई, लेकिन नीचे सड़क पर देखते हुए चलने की उसकी आदत नहीं छूटी। वृद्धावस्था आने पर एक दिन उसने वो सारे सिक्के निकाले जो उसे जीवन भर सड़कों पर पड़े हुए मिले थे। पूरी राशि पचास रुपए के लगभग थी। जब उसने यह बात अपने बच्चों को बताई तो उसकी बेटी ने कहा:-

"आपने अपना पूरा जीवन नीचे देखने में बिता दिया और केवल पचास रुपए ही कमाए। लेकिन इस दौरान आपने हजारों खूबसूरत सूर्योदय और सूर्यास्त, सैकड़ों आकर्षक इंद्रधनुष, मनमोहक पेड़-पौधे, सुंदर नीला आकाश और पास से गुजरते लोगों की मुस्कानें गंवा दीं। आपने वाकई जीवन को उसकी संपूर्ण सुंदरता में अनुभव नहीं किया।

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हममें से कितने लोग ऐसी ही स्थिति में हैं। हो सकता है कि हम सड़क पर पड़े हुए पैसे न ढूंढते फिरते हों, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हम धन कमाने और संपत्ति एकत्रित करने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि जीवन के अन्य पहलुओं की उपेक्षा कर रहे हैं? इससे न केवल हम प्रकृति की सुंदरता और दूसरों के साथ अपने रिश्तों की मिठास से वंचित रह जाते हैं, बल्कि स्वयं को उपलब्ध सबसे बड़े खजाने-अपनी आध्यात्मिक संपत्ति को भी खो बैठते हैं।

आजीविका कमाने में कुछ गलत नहीं है। लेकिन जब पैसा कमाना हमारे लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण हो जाए कि हमारे स्वास्थ्य, हमारे परिवार और हमारी आध्यात्मिक तरक्की की उपेक्षा होने लगे, तो हमारा जीवन असंतुलित हो जाता है। हमें अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ अपनी आध्यात्मिक प्रगति की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमें शायद लगता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का मतलब है सारा समय ध्यानाभ्यास करते रहना, लेकिन सच तो यह है कि हमें उस क्षेत्र में भी असंतुलित नहीं हो जाना चाहिए।

अपनी प्राथमिकताएं तय करते समय हमें रोजाना कुछ समय आध्यात्मिक क्रिया को, कुछ समय निष्काम सेवा को, कुछ समय अपने परिवार को और कुछ समय अपनी नौकरी या व्यवसाय को देना चाहिए। ऐसा करने से हम देखेंगे कि हम इन सभी क्षेत्रों में उत्तम प्रदर्शन करेंगे और एक संतुष्टिपूर्ण जीवन जीते हुए अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त कर लेंगे। समय-समय पर यह देखना चाहिए कि हम अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो भी रहे हैं अथवा नहीं। हो सकता है कि हमें पता चले कि हम अपने करियर या अपने जीवन के आर्थिक पहलुओं की ओर इतना ज्यादा ध्यान दे रहे हैं कि परिवार, व्यक्तिगत विकास और आध्यात्मिक प्रगति की उपेक्षा हो रही है।

 

♠ भोला की चिट्ठी ♠

••••• ★ निवेदन ★ •••••

कृपया इस भावनात्मक चिट्ठी को हर एक टीचर के साथ Facebook, Whatsapp, etc पर शेयर करें, खासतौर से सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स के साथ ज़रूर शेयर करें.

आदरणीय मास्टर जी,

मैं भोला हूँ, आपका पुराना छात्र. शायद आपको मेरा नाम भी याद ना हो, कोई बात नहीं, हम जैसों को कोई क्या याद रखेगा. मुझे आज आपसे कुछ कहना है सो ये चिट्ठी डाक बाबु से लिखवा रहा हूँ.

मास्टर जी मैं 6 साल का था जब मेरे पिताजी ने आपके स्कूल में मेरा दाखिला कराया था. उनका कहना था कि सरकारी स्कूल जाऊँगा तो पढना-लिखना सीख जाऊँगा और बड़ा होकर मुझे उनकी तरह मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी, दो वक़्त की रोटी के लिए तपते शरीर में भी दिन-रात काम नहीं करना पड़ेगा… अगर मैं पढ़-लिख जाऊँगा तो इतना कमा पाऊंगा कि मेरे बच्चे कभी भूखे पेट नहीं सोयेंगे!

पिताजी ने कुछ ज्यादा तो नहीं सोचा था मास्टर जी…कोई गाडी-बंगले का सपना तो नहीं देखा था वो तो बस इतना चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ लिख कर बस इतना कमा ले कि अपना और अपने परिवार का पेट भर सके और उसे उस दरिद्रता का सामना ना करना पड़े जो उन्होंने आजीवन देखी…!

पर पता है मास्टर जी मैंने उनका सपना तोड़ दिया, आज मैं भी उनकी तरह मजदूरी करता हूँ, मेरे भी बच्चे कई-कई दिन बिना खाए सो जाते हैं… मैं भी गरीब हूँ….अपने पिता से भी ज्यादा !

शायद आप सोच रहे हों कि मैं ये सब आपको क्यों बता रहा हूँ ?

क्योंकि आज मैं जो कुछ भी हूँ उसके लिए आप जिम्मेदार हैं !

मैं स्कूल आता था, वहां आना मुझे अच्छा लगता था, सोचता था खूब मन लगा कर पढूंगा,क्योंकि कहीं न कहीं ये बात मेरे मन में बैठ गयी थी कि पढ़ लिख लिया तो जीवन संवर जाएगा…इसलिए मैं पढना चाहता था…लेकिन जब मैं स्कूल जाता तो वहां पढाई ही नहीं होती.

आप और अन्य अध्यापक कई-कई दिन तो आते ही नहीं…आते भी तो बस अपनी हाजिरी लगा कर गायब हो जाते…या यूँही बैठ कर समय बिताते…..कभी-कभी हम हिम्मत करके पूछ ही लेते कि क्या हुआ मास्टर जी आप इतने दिन से क्यों नहीं आये तो आप कहते कुछ ज़रूरी काम था!!!

आज मैं आपसे पूछता हूँ, क्या आपका वो काम हम गरीब बच्चों की शिक्षा से भी ज़रूरी था?

आपने हमे क्यों नहीं पढाया मास्टर जी…क्यों आपसे पढने वाला मजदूर का बेटा एक मजदूर ही रह गया?

क्यों आप पढ़े-लिखे लोगों ने मुझ अनपढ़ को अनपढ़ ही बनाए रखा ?

क्या आज आप मुझे वो शिक्षा दे सकते हैं जिसका मैं अधिकारी था?

क्या आज आप मेरा वो बचपन…वो समय लौटा सकते हैं ?

नहीं लौटा सकते न ! तो छीना क्यों ?

कहीं सुना था कि गुरु का स्थान माता-पिता से भी ऊँचा होता है, क्योंकि माता-पिता तो बस जन्म देते हैं पर गुरु तो जीना सिखाता है!

आपसे हाथ जोड़ कर निवेदन है, बच्चों को जीना सिखाइए…उनके पास आपके अलावा और कोई उम्मीद नहीं है …उस उम्मीद को मत तोड़िये…आपके हाथ में सैकड़ों बच्चों का भविष्य है उसे अन्धकार में मत डूबोइए…पढ़ाइये…रोज पढ़ाइये… बस इतना ही कहना चाहता हूँ!

क्षमा कीजियेगा !

भोला

♠ माँ की महानता ♠

एक दिन थॉमस एल्वा एडिसन जो कि प्रायमरी स्कूल का विद्यार्थी था,
अपने घर आया और एक कागज अपनी माताजी को दिया और बताया:-
" मेरे शिक्षक ने इसे दिया है और कहा है कि इसे अपनी माताजी  को ही देना..!"

उक्त कागज को देखकर माँ की आँखों  में आँसू आ गये और वो जोर-जोर से पड़ीं,
जब एडीसन ने पूछा कि
"इसमें क्या लिखा है..?"

तो सुबकते हुए आँसू पोंछ कर बोलीं:-
इसमें लिखा है..
"आपका बच्चा जीनियस है हमारा स्कूल छोटे स्तर का है और शिक्षक बहुत प्रशिक्षित नहीं है,
इसे आप स्वयं शिक्षा दें ।

कई वर्षों के बाद उसकी माँ का स्वर्गवास हो गया।
थॉमस एल्वा एडिसन जग प्रसिद्ध वैज्ञानिक बन गये।

उसने कई महान अविष्कार किये,
एक दिन वह अपने पारिवारिक वस्तुओं को देख रहे थे। आलमारी के एक कोने में उसने कागज का एक टुकड़ा पाया उत्सुकतावश उसे खोलकर देखा और पढ़ने लगा।
वो वही काग़ज़ था..

उस काग़ज़ में लिखा था-

"आपका बच्चा बौद्धिक तौर पर कमजोर है और उसे अब और इस स्कूल में नहीं आना है।

एडिसन आवाक रह गये और घण्टों  रोते रहे,
फिर अपनी डायरी में लिखा

***
एक महान माँ ने
बौद्धिक तौर पर कमजोर बच्चे को सदी का महान वैज्ञानिक बना दिया
***

यही सकारात्मकता और सकारात्मक पालक (माता-पिता)  की शक्ति है ।

♠ વાહ ખૂબ ! ♠

બિરબલે તીર-કામઠાં આપ્યાં. બાદશાહે નિશાન તાક્યું. પણ હઠ ! નિશાન ખાલી ગયું અને પક્ષી ઊડી ગયું.

પ્રશંસા કરવામાં પણ આવડત જોઇએ. એ આવડત હોય એટલે ગાડું ચાલ્યું.

બિરબલ આખો વખત બાદશાહની પ્રશંસા કર્યા કરતો. બાદશાહને ક્યારેક એ ગમતું પણ નહિ. એક વાર તો તેમણે નક્કી કર્યું કે આ મસ્કાબાજ બિરબલનો સીધો જ કરવો.

એકવાર બાદશાહ અને બિરબલ અગાશીમાં હતા. એક પક્ષીને જોઇ બાદશાહ કહે : ''બિરબલ ! હું ધારું તો પેલા દૂરના પક્ષીને જરૃર વીંધી કાઢું. બોલ !''

બિરબલ કહે : 'વાહ ! આપની નિશાનબાજીનું તે શું કહેવું !'

બાદશાહ કહે : 'તો લાવ તીર-કામઠાં.'

બિરબલે તીર-કામઠાં આપ્યાં. બાદશાહે નિશાન તાક્યું. પણ હઠ ! નિશાન ખાલી ગયું અને પક્ષી ઊડી ગયું.

બિરબલ એકદમ બોલી ઊઠયો : 'વાહ ખૂબ ! વાહ ખૂબ !!'
બાદશાહ નારાજ થઇ ગયા. તેઓ કહે : 'નિશાન ખાલી ગયું અને છતાં તું વાહ ખૂબ કરે છે ? ખોટી સ્તુતિ એ અપમાન છે, જાણે છે ને બિરબલ ?'

બિરબલ કહે : 'વાહ ખૂબ !'

બાદશાહે ગુસ્સે થઇ ને કહે : 'બિરબલ !'

બિરબલ હસીને કહે : 'શાંત થાઓ નામદાર ! મેં સ્તુતિ આપની નિશાનબાજીની નથી કરી, આપનામાં રહેલી પક્ષીઓ તરફની દયાની કરી છે. આપનામાં જીવ પ્રત્યે એટલી દયા છે હજૂર કે આપ મારી શકો છો છતાં મારતા નથી. નિશાનબાજી તો આપની અટલ છે વાહ ખૂબ ! પણ અચ્છી નિશાનબાજી વખતે આપનામાં જીવ પ્રત્યે દયા ઊભરાઇ જાય છે માટે જ આપ તેને વીંધતા નથી. વાહ ખૂબ !'

બાદશાહે હસી દીધું. તેઓ કહે : 'બિરબલ ! તને તે કેવી રીતે પકડવો એ જ સમજાતું નથી. જબરો છે તું !'

♠ दिव्य दर्पण ♠

“बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिल्या कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥“

पुराने जमाने की बात है। एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा भावना से बहुत प्रभावित हुए। विद्या पूरी होने के बाद शिष्य को विदा करते समय उन्होंने आशीर्वाद के रूप में उसे एक ऐसा दिव्य दर्पण भेंट किया, जिसमें व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।

शिष्य उस दिव्य दर्पण को पाकर प्रसन्न हो उठा। उसने परीक्षा लेने की जल्दबाजी में दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सामने कर दिया। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण परिलक्षित हो रहे थे। इससे उसे बड़ा दुख हुआ। वह तो अपने गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित सत्पुरुष समझता था।
दर्पण लेकर वह गुरुकूल से रवाना हो गया। उसने अपने कई मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया। और तो और अपने माता व पिता की भी वह दर्पण से परीक्षा करने से नहीं चूका। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा, तो वह हतप्रभ हो उठा। एक दिन वह दर्पण लेकर फिर गुरुकुल पहुंचा।

उसने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- “गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में नाना प्रकार के दोष हैं।“

तब गुरु जी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया. क्योंकि उसके मन के प्रत्येक कोने में राग,द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण विद्यमान थे।

गुरुजी बोले- “वत्स यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था दूसरों के दुर्गुण देखने के लिए नहीं। जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है। वह स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके।“

♠ વિશ્વાસ ♠


એક ડાકુ હતો એક દિવસ તે સાધુનો વેશ લઈને નીકળ્યો હતો, તેનો ઈરાદો હતો કે સાધુનો વેશ લેવાથી બધાને છેતરીને લૂંટી લેવા જંગલમાં તંબું બાંધીને તેના બધા માણસો સાથે રહેતો. બધો લૂંટનો સામાન તંબુમાં રાખતો હતો.

એક દિવસ તેના માણસો લૂંટ કરવા ગયા હતા. તે સાધુના વેશે તંબુની બહાર બેઠો હતો. ત્યાં એક માણસ દોડતો દોડતો તેની પાસે આવ્યો સાધુના હાથમાં રૃપિયા ભરેલી થેલી મૂકી દીધી. અને કહ્યું.... મહારાજ હું બાજુના ગામમાં રહું છું. વેપારની ઉઘરાણી કરવા હું બીજા ગામ ગયો હતો. રસ્તામાં આ જંગલ આવ્યુું. હું અને મારી સાથેના બીજા વેપારીઓ અહિથી પસાર થતા હતા ત્યારે લૂંટારાઓની ટોળી આવી, બધા ગભરાઈને ભાગવા લાગ્યા, થોડાક વેપારીને લૂંટારુઓએ લૂંટી લીધા, હું ભાગી આવ્યો, લૂંટારુઓ પાછળ જ છે, તમે આ રૃપિયાની થેલી રાખો, હું પછી લઈ જઈશ...

આટલું બોલીને રૃપિયા ભરેલી થેલી મૂકીને તે વેપારી દોડીને જતો રહ્યો. થોડીવાર પછી તે ડાકુના માણસો આવ્યા. અને બધા તંબુમાં જઈને લૂંટનો સામાન જોતા હતાં. ત્યાં પેલો વેપારી આવ્યો સાધુને ન જોયા એટલે તે તંબુમાં ગયો, તંબુમાં બધા લૂટારૃઓ, લૂંટનો સામાન, બંદુુક, તલવારો જોઈને ગભરાઈ ગયો, તે સમજી ગયો કે સાધુ નકલી હતો. તેને થયું કે હવે કંઈ બોલીશ તો રૃપિયાની સાથે જીવ પણ જશે. એટલે તે બોલ્યા વગર ત્યાંથી નીકળ્યો.

એ બહાર જતો હતો ત્યારે પેલા નકલી સાધુએ તેને બોલાવ્યો. અને કહ્યું, અરે ભાઈ તમારી રૃપિયાની થેલી તો લેતા જાવ. વેપારીને નવાઈ લાગી. પણ તે ડાકુએ તેને રૃપિયાની થેલી આપી દીધી. વેપારી નવાઈથી બોલ્યો, 'માફ કરજો... પણ એક સવાલ પૂછયા વિના નહી રહી શકું, તમે બધાને લૂંટીને ધન ભેગુ કરો છો, તો આ તો સામેથી તમારી પાસે આવેલું ધન છે. તે તમે પાછું કેમ આપો છો ?

ડાકુ હસીને બોલ્યો, ભાઈ ડાકુનું કામ ધન લૂંટવાનું છે. પણ તેં એક સાધુ પર વિશ્વાસ કરીને રૃપિયા આપ્યા હતા. તને સાધુ પર વિશ્વાસ હતો. સાધુ પરનો વિશ્વાસ તૂટે. અને પછી તમારી વાત સાંભળીને બધા જ સાધુ પર અવિશ્વાસ કરે. માત્ર સાધુ પરનો તમારો વિશ્વાસ જીતાડવા જ હું તમને આ રૃપિયા પાછા આપુ છું'' વેપારી ખુશ થઈને રૃપિયા લઈને પાછો ગયો.

♦ બોધ - કોઈ તમારા પર વિશ્વાસ મૂકે તો તે
વિશ્વાસ કયારેય ન તોડતા. ♥

♠ द्रौपदी का पुण्य ♠

 
♥ इँसान जैसा करता है कुदरत या भगवान उसे वैसा ही उसे लौटा देता है l ♥

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एक बार द्रौपदी सुबह तड़के स्नान करने यमुना घाट पर गयी भोर का समय था तभी उसका ध्यान सहज ही एक साधु की ओर गया जिसके शरीर पर मात्र एक लँगोटी थी l

साधु स्नान के पश्चात अपनी दुसरी लँगोटी लेने गया तो वो लँगोटी अचानक हवा के झोके से उड़ पानी मे चली गयी ओर बह गयी l

सँयोगवस साधु ने जो लँगोटी पहनी वो भी फटी हुई थी l
साधु सोच मे पड़ गया कि अब वह अपनी लाज कैसे बचाए थोड़ी देर मे सुर्योदय हो जाएगा और घाट पर भीड़ बढ जाएगी l साधु तेजी से पानी के बाहर आया और झाड़ी मे छिप गया l

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द्रौपदी यह सारा दृश्य देख अपनी साड़ी जो पहन रखी थी उसमे आधी फाड़ कर उस साधु के पास गयी ओर उसे आधी साड़ी देते हुए बोली, '' तात मै आपकी परेशानी समझ गयी l इस वस्त्र से अपनी लाज ढँक लीजिए l ''

साधु ने सकुचाते हुए साड़ी का टुकड़ा ले लिया और आशीष दिया कि '' जिस तरह आज तुमने मेरी लाज बचायी उसी तरह एक दिन भगवान तुम्हारी लाज बचाएगे l ''

और जब भरी सभा मे चीरहरण के समय द्रौपदी की करुण पुकार नारद ने भगवान तक पहुचायी तो भगवान ने कहा-कर्मो के बदले मेरी कृपा बरसती है क्या कोई पुण्य है द्रोपदी के खाते मे l

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जाँचा परखा गया तो उस दिन साधु को दिया वस्त्र दान हिसाब मे मिला जिसका ब्याज भी कई गुणा बढ गया था l जिसको चुकता करने भगवान पहुच गये द्रोपदी की मदद करने l दुस्सासन चीर खीचता गया और हजारो गज कपड़ा बढता गया l

♦ इँसान यदि सुकर्म करे तो उसका फल सूद सहित मिलता है ओर दुस्कर्म करे तो सूद सहित भोगना पड़ता है l ♦

♠ सफलता की कोई उम्र नहीं होती ! ♠


'' हम इसलिए खेलना नहीं छोड़ देते क्योंकि हम बूढ़े हो जाते हैं, हम इसलिए बूढ़े हो जाते हैं क्योंकि हम खेलना छोड़ देते हैं! ''

इस संसार में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्होंने अपने कार्योँ से अपनी उम्र को पीछे छोड़ दिया। यह बात सच है कि हमारे शरीर के कार्य करने की एक सीमा है। उम्र बढ़ने के साथ शरीर के कार्य करने की क्षमता घटती जाती है, लेकिन जिन लोगों के हौसले बुलंद होते हैं, जो जीवन में कुछ कर गुजरने की चाह रखते हैं, जिनमें उत्साह – उमँग होता है, जिनकी इच्छाशक्ति व संकल्पशक्ति मजबूत होती है, ऐसे व्यक्तियों के सामने कोई बाधा बड़ी नहीं होती। ऐसे व्यक्ति आत्मविश्वास से भरे हुयें होते है, जो असंभव को भी संभव बना देते है।

युवा किसी आयु अवस्था का नाम नहीं, बल्क़ि शक्ति का नाम है। जिसने अपने मन और आत्मा की शक्ति को जगा लिया, वह ७० वर्ष की आयु में भी युवा है।

बहुत से लोग उम्र बढ़ने के साथ – साथ सोचने लगते हैं कि अब तो हमारी उम्र हो गयी है, “अब हमसे ये सब नहीं हो सकता”। उनकी यही सोच उन्हें निर्बल बना देती है और कुछ कार्य नहीं करने देती। व्यक्ति जितना अपने शरीर से कार्य करता है, उससे कई गुना कार्य वह अपने मन से करता है। यदि मन की शक्तियाँ ही उसकी कमजोर पड़ गई हैं, तो फिर जरूरत है उन्हें जगाने की।

शक्तियों के जागरण से संबंधित एक ऐतिहासिक कथा याद आती है।

एक राजा के पास कई हाथी थे, लेकिन एक हाथी बहुत शक्तिशाली था, बहुत आज्ञाकारी, समझदार व युद्ध-कौशल में निपुण था। बहुत से युद्धों में वह भेजा गया था और वह राजा को विजय दिलाकर वापस लौटा था, इसलिए वह महाराज का सबसे प्रिय हाथी था। समय गुजरता गया और एक समय ऐसा भी आया, जब वह वृद्ध दिखने लगा। अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर पाता था। इसलिए अब राजा उसे युद्ध क्षेत्र में भी नहीं भेजते थे। एक दिन वह सरोवर में जल पीने के लिए गया, लेकिन वहीं कीचड़ में उसका पैर धँस गया और फिर धँसता ही चला गया। उस हाथी ने बहुत कोशिश की, लेकिन वह उस कीचड़ से स्वयं को नहीं निकाल पाया। उसकी चिंघाड़ने की आवाज से लोगों को यह पता चल गया कि वह हाथी संकट में है। हाथी के फँसने का समाचार राजा तक भी पहुँचा।

राजा समेत सभी लोग हाथी के आसपास इक्कठा हो गए और विभिन्न प्रकार के शारीरिक प्रयत्न उसे निकालने के लिए करने लगे। जब बहुत देर तक प्रयास करने के उपरांत कोई मार्ग नहीं निकला तो राजा ने अपने सबसे अनुभवी मंत्री को बुलवाया। मंत्री ने आकर घटनास्थल का निरीक्षण किया और फिर राजा को सुझाव दिया कि सरोवर के चारों और युद्ध के नगाड़े बजाए जाएँ। सुनने वालोँ को विचित्र लगा कि भला नगाड़े बजाने से वह फँसा हुआ हाथी बाहर कैसे निकलेगा, जो अनेक व्यक्तियों के शारीरिक प्रयत्न से बाहर निकल नहीं पाया।

आश्चर्यजनक रूप से जैसे ही युद्ध के नगाड़े बजने प्रारंभ हुए, वैसे ही उस मृतप्राय हाथी के हाव-भाव में परिवर्तन आने लगा। पहले तो वह धीरे-धीरे करके खड़ा हुआ और फिर सबको हतप्रभ करते हुए स्वयं ही कीचड़ से बाहर निकल आया। अब मंत्री ने सबको स्पष्ट किया कि हाथी की शारीरिक क्षमता में कमी नहीं थी, आवश्यकता मात्र उसके अंदर उत्साह के संचार करने की थी। हाथी की इस कहानी से यह स्पष्ट होता है कि यदि हमारे मन में एक बार उत्साह – उमंग जाग जाए तो फिर हमें कार्य करने की ऊर्जा स्वतः ही मिलने लगती है और कार्य के प्रति उत्साह का मनुष्य की उम्र से कोई संबंध नहीं रह जाता।

जीवन में उत्साह बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सकारात्मक चिंतन बनाए रखे और निराशा को हावी न होने दे। कभी – कभी निरंतर मिलने वाली असफलताओं से व्यक्ति यह मान लेता है कि अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकता, लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है।

★ हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी आजादी की लड़ाई 48 साल की उम्र में शुरू की थी और हमें आज़ादी दिलाई।

★ जापान के 105 वर्षीय धावक हिडकीची मियाज़ाकि ने 42.22 सेकण्ड्स में 100 मीटर डैश कम्पलीट कर नया विश्व रिकॉर्ड बनाया।

★ मशहूर अभिनेता बोमन ईरानी ने 44 साल की उम्र में एक्टिंग करना शुरू की।

★ ग्रामीण बैंक के फाउंडर और नोबल शांति पुरस्कार विजेता मुहम्मद युनुस ने 43 साल की उम्र में ग्रामीण बैंक की शुरुआत की।

★ अमिताभ बच्चन आज 70 साल से ऊपर होने के बावजूद सबसे सक्रीय बॉलीवुड स्टार्स में से एक हैं।
ऐसे तमाम उदहारण हैं जहाँ लोगों ने साबित किया है कि अगर कुछ कर गुजरने का हौंसला हो तो क्या उम्र और क्या चुनौतियाँ कुछ मायने नहीं रखता ।

→ मित्रों, प्रसिद्ध विचारक जॉन ओ डनह्यू का कहना है

“आप उतने युवा है, जितना आप महसूस करते हैं। अगर आप अंदर के उत्साह को महसूस करना शुरू करेंगे, तो एक ऐसी जवानी महसूस  करेंगे, जिसे कोई भी आपसे छीन नहीं सकता”।

मन में उत्साह हो तो उम्र कभी भी कार्य के मार्ग पर बाधा नहीं बनती। बाधा बनती है तो केवल हमारी नकारात्मक सोच। यदि कार्य करना है तो किसी भी उम्र में कार्य किया जा सकता है, कार्य करने के तरीके बदले जा सकते हैं और पहले की तुलना में अधिक अच्छे ढंग से व कुशलतापूर्वक कार्य किया जा सकता है।

उम्र के असर को बहुत हद्द तक अपने प्रयासों, सकारात्मक सोच और उत्साह से कम किया जा सकता है, अतः ये कहने से पहले कि हमारी उम्र हो गयी है , हम ये नहीं कर सकते , वो नहीं कर सकते उन तमाम लगों के बारे में सोचिये जिनके लिए age एक number से अधिक कुछ नहीं है। अगर वो कर सकते हैं तो कोई भी कर सकता है, तो चलिए फिर से सपने देखना शुरू करिए, फिर से उनका पीछा कीजिये और एक बार फिर अपने सपनो को साकार कर दीजिये।

धन्यवाद!