♠ धैर्य का फल ♠

बार-बार पैरों तले कुचले जाने के कारण मिट्टी अपने भाग्य पर रो पडी l अहो! मैं कैसी बदनसीब हूँ कि सभी लोग मेरा अपमान करते हैं। कोई भी मुझे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता जबकि मेरे ही भीतर से प्रस्फुटित होने वाले फूल का कितना सम्मान है। फूलों की माला पिरोकर गले में पहनी जाती है। भक्त लोग अपने उपास्य के चरणों में चढाते हैं। वनिताएं अपने बालों में गूंथ कर गर्व का अनुभव करती हैं। अच्छा हो कि मैं भी लोगों के मस्तिष्क पर चढ जाऊं!

मिट्टी के अंदर से निकलती हुई आह को जानकर कुंभकार बोला-मिट्टी! तुम यदि सम्मान पाना चाहती हो तो तुम्हें बडा सम्मान दिला सकता हूँ लेकिन एक शर्त है।

'एक क्या तुम्हारी जितनी भी शर्ते हों, मुझे सभी स्वीकार हैं। बस मुझे लोगों के पैरों तले से हटा दो,' कुंभकार की बात को बीच में ही काटते हुए मिट्टी ने कहा।

'तो फिर ठीक है, तैयार हो जाओ'- कहते हुए कुंभकार ने जमीन खोदकर मिट्टी बाहर निकाली। उसे घर ले आया। पानी में डालकर उसे बहुत समय तक गीली रखा। इतना ही नहीं फिर पैरों से उसे खूब रौंदा। कष्टों को सहते हुए मिट्टी बोली, 'अरे भाई! मै सम्मान का पात्र कब बनूंगी?'

'मिट्टी बहिन! धैर्य रखो। अभी सहती जाओ, तुम्हें इसका मधुर फल जरूर मिलेगा।'

कुंभकार की बात सुनकर मिट्टी कुछ नहीं बोली।
कुंभकार ने मिट्टी को चाक पर चढाया और उसे तेजी से घुमाते हुए घडे का रूप दिया। फिर धूप में सुखाया। कष्ट सहते-सहते जब मिट्टी का धैर्य टूटने लगा तो कुंभकार बोला, 'बस बहन! अब केवल एक अग्नि-परीक्षा ही शेष है। और सभी में तुम उत्तीर्ण हो चुकी हो। यदि उसमें भी उत्तीर्ण रही तो लोग सती सीता की तरह तुम्हें भी मस्तक पर चढा लेंगे। सीता को लोग सिर झुकाकर सम्मान देते हैं किन्तु तुम्हें तो वनिताएं सिर पर सजा कर घूमेंगी। '

आखिर मिट्टी ने सब कुछ सह कर अग्नि-परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। फिर क्या था! सचमुच सुंदरियां उसे सिर पर उठाए फिरने लगी। मिट्टी अपने सम्मान पर प्रफुल्लित हो उठी। आखिर सम्मान पाने के लिए कष्ट तो सहने ही पड़ते हैं।